Thursday, April 30, 2009

कौडियों के दाम बिकते आदमी को देखते हैं

जिन्दगी का करते सौदा जिन्दगी को देखते हैं

कौडियों के दाम बिकते आदमी को देखते हैं


साँसों के हैं हम मुलाजिम, बंदिशें हैं धडकनों पे

मौत के ही हुक्म से अब हर किसी को देखते हैं


वो शजर भी मुद्दतों से आँधियों का मुन्तजिर है

शूखती शाखों में जिसकी बेबसी को देखते हैं


कौन होगा तख्त पर कल, आज किस की है हुकूमत

सियासत हम तो तेरी तिश्नगी को देखते हैं

महलों के कोनो से टूटी चूडियाँ मिलतीं हैं जब जब
हम अमीरी के बदन में, भुखमरी को देखते हैं



लड़ रहा है काफिरों से वो अकीदत का मुकदमा

के यकीं की खोल कर अब हर कडी को देखते हैं


करवटों में बीती रातें, सिलवटें हैं ख्वाहिशों पर

रात भर हम ज़प्त की पेचीदगी को देखते हैं


मिलती है बेचैन दिल को चैन की तब इक खुमारी

जब कभी भी हम पलट कर दोस्ती को देखते हैं


शक्ल अपनी, आईने में तेरे, जब भी आई है तो

उम्मीदों के ज़र्द साये रौशनी को देखते हैं


‘माह’ तेरे दिल की मिट्टी शख्त कैसे हो गई है??

रात में तो आज भी हम नम ज़मी को देखते हैं


***********************************************


Zindagi ka karte sauda zindagii ko dekhte haiN
Kaudiyon ke daam bikte aadmii ko dekhte haiN

saanson ke hain hum mulaazim, bandishen hain dhadkano pe
Maut ke hi hukm se ab har kisii ko dekhte haiN

Wo shajar bhi muddaton se aandhiyon ka muntazir hai
ShuuKHti shaaKHon mein jis ki bebasii ko dekhte haiN

kaun hoga taKHt par kal, aaj kis ki hai hukuumat
aye siyaasat hum to teri tiSHnagii ko dekhte hain

mehlon ke kono se tooti chuudiyan milti hain jab jab
hum amiirii ke badan mein, bhukhmarii ko dekhte haiN

lad raha hai kaafiron se wo aqiidat ka mukadma
ke yaqeeN ki khol kar ab har kadii ko dekhte haiN

Karwaton mein biitii raaten, silwaten hain khwaahishon par
Raat bhar hum zapt ki Pechiidgii ko dekhte hain

Milti hai bechain dil ko chain ki tab ik KHumaarii
Jab kabhi bhi hum palat kar dosti ko dekhte haiN

Shaql apni, aaiene mein tere, jab bhi aayi hai to
Ummiidon ke zard saaye roushnii ko dekhte haiN

‘Maah’ tere dil ki mitti shaKHt kaise ho gayi hai??
Raat mein to aaj bhi hum num zamii ko dekhte haiN


Saturday, April 18, 2009

नमक ले दस्त में जो ज़ख्म सारा छू रहा है


वो शीशा जाने क्यूँ पत्थर दुबारा छू रहा है

कु-ऐ-कातिल में क्या किस्मत का तारा छू रहा है??


उसी के पास फिर जाता है ज़ख्मी दिल हमारा

नमक ले दस्त में जो ज़ख्म सारा छू रहा है


शफक की मेज़ से लटकी वो चादर आसमानी

के मनो अब किनारे को किनारा छू रहा है


पनपती जा रहीं हैं देखो शूखी बेलें मेरी

के अब इक बेसहारे को सहारा छू रहा है


लगी बंज़र ज़मी को फिर कोई उम्मीद सी है

के माँ का खाब, अब उसका दुलारा छू रहा है


जिधर देखूं उधर एक प्यास है सब के लबों पे

यूँ हर दिल में कोई दर्द परा छू रहा है


बरसता देखता हूँ यादों के सेहरा में बादल

मेरे नज़रों को ये कैसा नज़ारा छू रहा है


मैं तेरी तिशनगी खूब वाकिफ हूँ ए दरिया

नदी की आड़ में तू घर हमारा छू रहा है


सूना है उस शहर के आशिया सब जल गएँ हैं

तो किस की नब्ज़ ये बादल बेचारा छू रहा है


कई रातें हि मेरी हैं यहाँ बेदार गुजरीं

के मीठी नींद कोई खाब खारा छू रहा है


हवाएं रुक बदल देती हैं मौका देखते ही

सहम कर अब समंदर भी किनारा छू रहा है


मैं इस तूफ़ान का मतलब ज़रा देरी से समझा

सर-ऐ-बाज़ार वो दामन तुम्हारा छू रहा है


फलक के बाम से गिर कर अचानक तारा इक दिन

“माह” के बख्त का पिन्हाँ इशारा छू रहा है



Thursday, April 16, 2009

"तरही मुशैरा" में ये मिश्रा दिया गया था हार कर जैसे जुआरी को जुआरी देखे जिस पे मैंने ये ग़ज़ल कही है
आप सबकी नज़र चहुन्गीइ




वो उनकी प्रीत को मर्यादा पे हारी देखे
अपने बनवास को जो राम दुलारी देखे


रात भर वस्ल की आँखों में खुमारी देखे
चाँद की बग्गी में तारों की सवारी देखे


ऐसे जजमान को मन्दिर का पुजारी देखे
नर्म रोटी को जैसे कोई बिखारी देखे


अपने चेहरे को घंटों बैठ के आईने में
हर इक लड़की में छुपी राजकुमारी देखे


माना खामोश मगर आह तो निकले दिल से
सूखते फूल को जो गीली वो क्यारी देखे


क्या छुपे और हैं जौहर अभी जंजीरों में..??
अपनी किस्मत को नचा कर ये मदारी देखे


आए दिन देखे यूँ वो अपने भूखे बच्चो को
हार कर जैसे जुआरी को जुआरी देखे


रो पढ़े खून के आंसू वो खुदा जन्नत से
जब ज़मीनों के लिए लड़ते अनारी देखे


क्या ये तस्वीर इतनी जल्दी बदल जानी थी
टूटता महल यूँ दीवार किवारी देखे


हो गए गैर तेरे साथ सभी मंज़र भी
न मुझे घर मेरा न मेरी अटारी देखे


मौत आए भी तगादा भी करे पुरशिश भी
के वो हर जिस्म में साँसों की उधारी देखे


‘माह’ का मोम अमावास में पिघल जाना था
कौन साबुत है के जो राह तुम्हारी देखे

Tuesday, September 16, 2008

कितने ज़माने लगते है


कितने ज़माने लगते हैं एक दर्द भुलाने मे
और उसे वक्त नही लगता दिल दुखाने मे

आज देखा है उन चेहरों को मैखाने मे
जो ख्याली शक्स मिले थे अफसाने मे

आदतन फिर वादा कर के आना भूल गया
आज कितने किस्से मिलेंगे उसके बहने मे

ये ज़ख्म भी कुछ वक्त के बाद भर जाएगा
बस ज़रा देर लगेगी निशां मिटने मे

तू चाहे जान भी देदे वो नही मानेगा
क्यूँ मर रहा है इतना वफ़ा निभाने मे

जिसके लिया छोड़ा सब, जब वोही छोड़ गया
तो अब क्या रखा है इस दोगले ज़माने मे

जिनको ज़र समझ सिने से लगाये बैठे थे
उन लम्हों का भी भला है गुज़र जाने मे

माह ने जाने क्यूँ उम्मीद लगा रखी थी
अब आती है शर्म दाग दिल दिखने मे


Thursday, September 11, 2008

तेरी रुसवाई


मैं शामिल नही हूँ तेरी रुसवाई मे

मैंने तो शिकवे किए थे तन्हाई मे



इतना चाहा था उसको के भुला न सका

जाने क्या थी अदा बे_दर्द सौदाई मे



यारों दे कर सज़ा मुझको बे_हिस करो

के संग ही संग हैं मेरी सुनवाई मे



बेसबब ज़स्ब को अब ना परेशां करो

रब्त बनता नही है ऐसी शहनाई मे



रंग अहबाब भी अपना दिखने लगे

शायद वक्त था बाकि मेरी रिहाई मे



जिस्म बेचा था ईमान नही बेचा

कुछ वफाएं बचीं थी उस हरजाई मे



मेरी आँखों के वो सरे खारे मक्कीं

छोड़ गए मुझको तेरी जुदाई मे



किसी को इतना सताते नही




अपने घर पे एहसान जताते नही हैं

सुनो! पत्थरों को रुलाते नही हैं



वो नाज़ुक ऑंखें संग हो चुकी हैं

इनको मलूल मंज़र देह्लाते नही हैं



जब से देखि है मैंने अहल हकीक़त

तब से कोई किस्से दिल बेहलाते नही हैं



बड़ी मुख्तसर थी उम्मीदों की उम्र भी

अब तो तस्सवुर जेहन मे आते नही हैं



बहरहाल मौत की मुझे जुस्तजू है

जिन्दगी! किसी को इतना सताते नही हैं



हमे ये मुताइन तन्हाई रास आगई है

हम अब अकेलेपन से घबराते नही हैं

Thursday, September 4, 2008

तेरे नाम पे ही

तजवीज, तारीख़ , तरकीब दी कोई

बस धर दिया दस्त में लकीरों का पुलिन्दा





सवाब, जवाब, दलील कोई चाहे

बस तेरे एक नाम पर ही देख मर मिटा बन्दा



निस्बत, करार, वाबस्तगी ही थी कोई

फिर क्या जाने किस उम्मीद पर मैं रहा ज़िन्दा



रफीक, हरीफ, आलिम था वहां कोई

हाय! बे_बसी किस शेहर का बना गई बाशिन्दा



आसमान, जहाँ, उड़ान ही चाहे

उफ़! क़फ़स में ही खुश है इस दौर का परिन्दा



तकरीर, अल्स इस्म, कोई जिस्म था जिसका

जाने किस बिनाह पे खोजे है उसे याबिन्दा