Tuesday, September 16, 2008

कितने ज़माने लगते है


कितने ज़माने लगते हैं एक दर्द भुलाने मे
और उसे वक्त नही लगता दिल दुखाने मे

आज देखा है उन चेहरों को मैखाने मे
जो ख्याली शक्स मिले थे अफसाने मे

आदतन फिर वादा कर के आना भूल गया
आज कितने किस्से मिलेंगे उसके बहने मे

ये ज़ख्म भी कुछ वक्त के बाद भर जाएगा
बस ज़रा देर लगेगी निशां मिटने मे

तू चाहे जान भी देदे वो नही मानेगा
क्यूँ मर रहा है इतना वफ़ा निभाने मे

जिसके लिया छोड़ा सब, जब वोही छोड़ गया
तो अब क्या रखा है इस दोगले ज़माने मे

जिनको ज़र समझ सिने से लगाये बैठे थे
उन लम्हों का भी भला है गुज़र जाने मे

माह ने जाने क्यूँ उम्मीद लगा रखी थी
अब आती है शर्म दाग दिल दिखने मे


Thursday, September 11, 2008

तेरी रुसवाई


मैं शामिल नही हूँ तेरी रुसवाई मे

मैंने तो शिकवे किए थे तन्हाई मे



इतना चाहा था उसको के भुला न सका

जाने क्या थी अदा बे_दर्द सौदाई मे



यारों दे कर सज़ा मुझको बे_हिस करो

के संग ही संग हैं मेरी सुनवाई मे



बेसबब ज़स्ब को अब ना परेशां करो

रब्त बनता नही है ऐसी शहनाई मे



रंग अहबाब भी अपना दिखने लगे

शायद वक्त था बाकि मेरी रिहाई मे



जिस्म बेचा था ईमान नही बेचा

कुछ वफाएं बचीं थी उस हरजाई मे



मेरी आँखों के वो सरे खारे मक्कीं

छोड़ गए मुझको तेरी जुदाई मे



किसी को इतना सताते नही




अपने घर पे एहसान जताते नही हैं

सुनो! पत्थरों को रुलाते नही हैं



वो नाज़ुक ऑंखें संग हो चुकी हैं

इनको मलूल मंज़र देह्लाते नही हैं



जब से देखि है मैंने अहल हकीक़त

तब से कोई किस्से दिल बेहलाते नही हैं



बड़ी मुख्तसर थी उम्मीदों की उम्र भी

अब तो तस्सवुर जेहन मे आते नही हैं



बहरहाल मौत की मुझे जुस्तजू है

जिन्दगी! किसी को इतना सताते नही हैं



हमे ये मुताइन तन्हाई रास आगई है

हम अब अकेलेपन से घबराते नही हैं

Thursday, September 4, 2008

तेरे नाम पे ही

तजवीज, तारीख़ , तरकीब दी कोई

बस धर दिया दस्त में लकीरों का पुलिन्दा





सवाब, जवाब, दलील कोई चाहे

बस तेरे एक नाम पर ही देख मर मिटा बन्दा



निस्बत, करार, वाबस्तगी ही थी कोई

फिर क्या जाने किस उम्मीद पर मैं रहा ज़िन्दा



रफीक, हरीफ, आलिम था वहां कोई

हाय! बे_बसी किस शेहर का बना गई बाशिन्दा



आसमान, जहाँ, उड़ान ही चाहे

उफ़! क़फ़स में ही खुश है इस दौर का परिन्दा



तकरीर, अल्स इस्म, कोई जिस्म था जिसका

जाने किस बिनाह पे खोजे है उसे याबिन्दा

Wednesday, September 3, 2008

मैं भी हो गया किसी का



खुदा को गुमा अपनी खुदी का

तो लो हो गया मैं भी किसी का


फिरता रहा ख़्यालों में अक्सर

मुझको हुआ भरम ज़िन्दगी का


नाज़--अदा से उसने क्या देखा

मेरा खुदा भी हो गया उसी का


पलकों के आंसू जैसे हों मोटी

छलता रहा गुहर खुशी का


आतिश वफ़ा से गलेगा संगदिल

था वो तस्सवुर एक आदमी का


मुझसे लिपट के भी रोया है वो संगदिल

एक वो भी जमाना था आशिकी का


हँसता हूँ अब तो उस फान इश्क पर मैं

कितना बे_मानी था वो किस्सा दिल्लगी का